अंतरराष्ट्रीयउत्तराखंडदेशराष्ट्रीय

फौजी पुत्र CM पुष्कर ही इस दर्द को समझ-दूर कर सकते हैं:कारगिल शहीदों के परिवारों को 26 साल बाद भी नहीं मिली जमीन:आश्रित बेसहारा माता-पिता के लिए कुछ करे सरकार

The Corner View

Chetan Gurung

वह गर्मियों की अलस्सुबह थी। शायद 3-4 बज रहे थे। 22 मई 1999। फौज की गाड़ी आई थी। बड़े भाई की तिरंगे में लिपटी देह के साथ। न जाने क्यों जब दरवाजा इतनी सुबह खटखटाने की आवाज सुनी और फौज के जवान को सामने देखा तो अनहोनी से हृदय हिल सा उठा था। फिर सूबेदार ने बताया। भाई देश के काम आ गया। कश्मीर के द्रास में। मश्कोह घाटी में। कई जंग लड़ चुके मेरे पूर्व फौजी पिता ने काँपते हाथों से युवा फौजी बेटे की चिता को अग्नि दी। किसी पिता के लिए इससे बड़ी पीड़ा और क्या होगी! भाई को सालाना छुट्टी काट के घर से पल्टन गए ठीक 1 महीना हुआ था। शहादत का Telegram तब मिला जब अंतिम संस्कार हुए भी 2 दिन हो चुके थे। कारगिल-बटालिक-द्रास Sector में पाकिस्तानी फ़ौजियों और और उनके भेजे घुसपैठियों ने सर्दियों में भारतीय सेना की खाली चौकियों पर कब्जा जमा लिया था। उनको खदेड़ने का Task मिला था। भाई और उनके जाँबाज साथियों को। शहीद जब हुए तो कारगिल में इतने भीषण युद्ध का आगाज हो चुका है, इसकी भनक देश को हुई तक नहीं थी। आज की तरह Social Media का जमाना नहीं था। फिर हर घंटे लगातार युद्ध भड़कता रहा।

हमारे जांबाजों ने दुश्मनों को नेस्तनाबूद करना शुरू किया। उनसे अपनी Posts वापिस लेने का सिलसिला शुरू किया। उनकी वीरता और साहस को देख के दुनिया ने दांतों तले अंगुली दबाई। इतनी कठिन और खतरनाक लड़ाई,जिसको Operation Vijay नाम दिया गया था, पहले कभी नहीं देखी गई थी। युद्ध में पाकिस्तान के सैनिकों और घुसपैठियों को ऊंचाई पर मोर्चा लेने का फायदा था। इसके बावजूद हमारे जांबाजों ने अप्रतिम वीरता और बहादुरी का प्रदर्शन कर उनके कदम उखाड़ डाले। जो नहीं भागे, उनके प्राण पखेरू उड़ा डाले। मेरे अनेक दोस्त सेना में हैं। वे उस युद्ध में मेरे भाई के साथ थे या फिर अलग से अन्य मोर्चों पर बेहद बहादुरी से लड़े। वे गाहे-बागाहे आज भी उस युद्ध की गाथा सुनाते रहते हैं। सुन के शरीर में झुरझुरी और रोमांच का एहसास आज भी होता है।

Chetan Gurung

—————–

गोरखा Regiment के एक दोस्त के मुताबिक उसने और उसके साथी सैनिकों ने खून से लथपथ होते हुए भी द्रास में आमने-सामने की जंग में खुखरियों से दुश्मनों को मार-गिराया था। राइफलों को Re-Load करने का मौका न मिलने और गुत्थमगुत्था की लड़ाई में 6-सवा 6 फुटे पाकिस्तानी फ़ौजियों को खुखरी से ही सबक सिखाया जा सकता था। ये युद्ध कितना अहम और कितनी जांबाजी से लड़ा गया था, इसको समझने के लिए इतना काफी है कि उस वक्त की केंद्र की वाजपाई सरकार ने Sectors में लड़ी गई लड़ाई को भी पूर्ण युद्ध का दर्जा दिया। युद्ध में शहीद सैनिकों के परिजनों और घायलों को तमाम योजनाओं-सुविधाओं का लाभ दिया। भारत और राज्य सरकारों के साथ ही Government Undertaking Companies और Private Sector की दिग्गज कंपनियाँ उनके लिए आगे आईं। शहीदों के परिवारों (Next of Kin) को गैस एजेंसी-पेट्रोल पंप और अनुग्रह राशि दी गई। सरकारी नौकरियाँ भी। UP सरकार (तब उत्तराखंड राज्य का गठन नहीं हुआ था) ने 5 बीघा जमीन भी देने का आदेश किया था। स्कूल-सड़कों की नाम शहीदों पर रखे गए।

देहरादून के DM तब तेजपाल सिंह थे। वह घर आए। पूछा कि किस सड़क का नाम भाई के नाम पर रखा जाए? मैंने दिलाराम चौक से सर्किट हाउस वाली सड़क बोला। उन्होंने ऐसा ही किया। सड़क का नाम शहीद मेख गुरुंग मार्ग कर दिया। ये बहुत बड़ी विडम्बना है कि आज भी सरकारी दस्तावेजों में इस सड़क का नाम New Cantt Road है। इस सड़क पर स्थित सैनिक कल्याण मंत्री गणेश जोशी के सरकारी आवास तक पर शहीद के नाम के बजाए New Cantt Road लिखा है। शहीद के नाम का मामूली सा पत्थर दिलाराम चौक पर लगा दिया गया था। दशकों तक यही रहा। CM पुष्कर सिंह धामी के निर्देश पर अब ये पत्थर एक साल पहले नए सिरे से खूबसूरत ढंग से लगाया गया।

Operation Vijay के शहीदों के परिजनों के लिए घोषित इमदाद-अनुदान-योजनाओं से जुड़े सरकारों के फैसले में विसंगतियाँ भी बहुत अधिक थीं। विवाहित वीरों की शहादत के बाद सिर्फ उनकी पत्नियों को सारी योजनाओं-अनुग्रह राशि-नौकरियों-गैस एजेंसी-पेट्रोल पंप और जमीन देने तक उनका Focus रहा। माता-पिता को सिर्फ उनके अविवाहित होने की सूरत में ये लाभ दिए गए। इसका असर किसी-किसी मामले में विवाहित शहीदों के माता-पिता की दशा देख के बेहद हृदय द्रवित करने वाला रहा। अधिकांश शहीद बहुत कम उम्र के थे। उनमें से कईयों की पत्नियों ने शहीद की तेरहवीं के दिन ही अपने माता-पिता-भाइयों के साथ मायके का रुख कर लिया। कुछ तो इसके लिए भी नहीं रुके। सरकार से योजनाओं और अनुग्रह राशि मिलती देख उनके मायके वाले उनको तुरंत अपने साथ ले गए। इनमें से बहुतों ने पुनर्विवाह कर लिया। माता-पिता और शहीद के भाई-बहन बेसहारा रह गए।

देहरादून में एक शहीद के माता-पिता से मैं जब मिला तो भौंचक्का रह गया। उनकी बहु मायके तुरंत चली गई थी। उनके पास शहीद बेटे की तेरहवीं के लिए भी पैसों का घोर संकट था। सेना ने भी अपने शहीद के माता-पिता का कोई ख्याल नहीं रखा। बहुओं के पास अगर सुरक्षित भविष्य था तो शहीद के माता-पिता दर-दर भटकने को विवश। UP विधान परिषद के सभापति (उस वक्त के) मरहूम नित्यानन्द स्वामी भी सरकारों के फैसलों और सेना के रुख से असहमति जतलाया करते थे। वह मानते थे कि माता-पिता को तकलीफ में रख के शहीदों को असली श्रद्धांजलि नहीं दी जा सकती है। कारगिल युद्ध समाप्ति के डेढ़ साल बाद उत्तराखंड बना तो वह अन्तरिम BJP सरकार के पहले CM (दूसरे CM उनकी जगह भगत सिंह कोश्यारी) बने। वह लेकिन कुर्सी पर होने और सब कुछ कर सकने की हैसियत के बावजूद शहीदों के माता-पिता-आश्रित भाइयों के लिए कुछ कर नहीं पाए। फिर एक साल में ही हटा दिए गए।

उत्तराखंड से 75 सैनिकों ने कारगिल युद्ध में शहादत दी थी। देहरादून के 31 जाँबाज इनमें शामिल थे। इनमें एक मेजर विवेक गुप्ता थे। उनकी पत्नी भी सेना में अधिकारी थीं। तलाक फाइनल हो चुका था। अदालत का फैसला आना था। तभी विवेक की शहादत हो गई और कानूनन पत्नी होने के चलते पत्नी को सारी सुविधाएं और लाभ मिले। मेजर विवेक के पिता खुद भी Retired कर्नल थे। वह अदालत गए। कानूनी लड़ाई लड़ी। पेट्रोल पंप लेने में सफल रहे। बाकी सुविधाएं पत्नी को ही मिली। उस वक्त ज़्यादातर शहीदों की पृष्ठभूमि ठेठ गाँव-पहाड़ों की थी। उनके परिवार के लोगों या पत्नियों को कुछ भी अंदाज सरकार की योजनाओं का था। गैस एजेंसी या पेट्रोल पंप चलाने का कोई अनुभव नहीं था। जरूरी शैक्षिक योग्यता न होने के चलते शहीदों की पत्नियों ने सरकारी नौकरी भी नहीं की। पेट्रोलियम कंपनियों और सरकार ने ऐसी जगह पेट्रोल पंप खोलने के लिए जमीन दी, जहां गाड़ियाँ बहुत कम गुजरा करती थीं। कई को पेट्रोल पंप से भारी घाटा भी हुआ।

कुछ को राज्य सरकार की घोषणा के मुताबिक 5 बीघा जमीन मिली लेकिन वह भी बेकार जगह या फिर बरसाती नदियों के किनारे दे दी गईं। उत्तराखंड बनने के बाद तमाम सरकारें आईं और हटीं। कई मुख्यमंत्री आए और चले गए। किसी ने भी शहीद के परिवारों और खास तौर पर माता-पिता-बेरोजगार आश्रित भाई-बहनों के लिए कुछ नहीं किया। कई शहीदों के परिवारों को 26 साल बाद भी जमीन नहीं मिली। अफसरों और शासन-प्रशासन से कई बार मिलने के बावजूद उनको सिर्फ टरकाया और टहलाया जाता रहा। सिर्फ कारगिल विजय दिवस पर उनको बुला के शाल ओढ़ाया जाता रहा। मेरे भाई के नाम की जमीन आज तक नहीं मिली है। और भी कई Case इस किस्म के हैं। मैंने कई बार पूर्व के मुख्यमंत्रियों और बड़े नौकरशाहों का ध्यान इस ओर दिलाया। हुआ कुछ नहीं।

CM पुष्कर न सिर्फ फौजी पुत्र हैं बल्कि बेहद संवेदनशील हैं। बुद्धिमान-सुलझे हुए हैं। फर्राटा और बड़े फैसले लेने के लिए जाने जाते हैं। अब शहीदों के परिवार वाले उनसे उम्मीद लगाए बैठे हैं। उम्मीद की जा सकती है कि वह इस बाबत 26 सालों से जमी मिट्टी को साफ कर देंगे। शहीदों के परिवार वालों में खुशी छाएगी अगर मुख्यमंत्री आज भी कुछ योजनाओं और अनुग्रह राशि का ऐलान उनके लिए करते हैं। कई शहीदों के माता-पिता स्वर्ग सिधार चुके हैं। कईयों के अभी भी जीवित हैं और बुरी दशा में हैं। उनके बेरोजगार बेटे अभी भी दर-दर ठोकरें खा रहे हैं। इस दिशा में अगर PSD ठोस कदम उठाते हैं तो ये वाकई कारगिल शहीदों के प्रति उनकी महान श्रद्धांजलि होगी।

 

 

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button