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25 साल और स्वार्थ-लालच की सियासत बनाम दुर्दशा भोग रहे कलमवीर! मौज में छुटके-मुहल्ले छाप रहे-हीरे-मोतियों-ताकत के गुरूर में डूबे नेता

The Corner View

Chetan Gurung

मुलायम सिंह यादव CM थे और उनके 27 फीसद OBC आरक्षण को ले के देहरादून के Public School और अन्य सभी छोटे-बड़े English Medium Schools भी उनके फैसले के खिलाफ हो गए थे। 1994 की बात है। स्कूली बच्चे रोजाना सरकार के फैसले के खिलाफ जुलूस निकाल रहे थे। उस दिन के जुलूस में The Doon School और अन्य कई बड़े-दुनिया भर में प्रतिष्ठित अन्य स्कूल के बच्चे शामिल थे। अलग उत्तराखंड राज्य की मांग की चिंगारी अभी सुलग ही रही थी। जुलूस में शामिल बच्चों को मैंने इस बारे में थोड़ा बताया। छोटे राज्य के फायदे समझाए। फिर उनसे पूछा कि उनको लगता है उत्तराखंड अलग राज्य बनना चाहिए! उन्होंने हाँ बोला। मैं जिस अखबार (अमर उजाला) में था, उसमें मैंने उस दिन Report लिखी तो अलग राज्य की मांग पर बच्चों (शायद 10वीं से 12वीं वाले) की राय भी डाल दी। बच्चे The Doon School के भी थे। अगले दिन ये खबर छपी कि इस स्कूल के बच्चों ने OBC Reservation की मुखालफत के साथ ही अलग राज्य की मांग का भी समर्थन किया।  प्रशासन में खलबली मच गई। LIU-IB-R and AW (रॉ)-MI-Special Branch और जितने भी अन्य खुफिया एजेंसियां काम कर रही थीं, उनके Agent आ के मिले। सच्चाई जानने की कोशिश की। स्कूल भी घबरा गए। उन्होंने फ़ौरन अपना विरोध प्रदर्शन रोक दिया। जो होना था लेकिन हो चुका था। राज्य आंदोलनकारियों को जोरदार खुराक जोश और उत्साह की मिल गई।

CM Pushkar Singh Dhami

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उसी दिन से उन्होंने चौगुने जोश से अपनी लड़ाई को लड़ना शुरू कर दिया। उस वक्त देहरादून के नामी-गिरामी स्कूलों में उप राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा के नाती-Actor नसीरुद्दीन शाह-संजय खान के बेटे-करीना कपूर-मनीषा कोइराला के भाई-पंजाब के CM प्रकाश सिंह बादल के पोते-सिक्किम के CM नर बहादुर भण्डारी के बेटे समेत तमाम बड़े नाम-रसूख वालों के बच्चे थे। अलग राज्य का आंदोलन भड़क उठा। फिर खटीमा-मसूरी-मुजफ्फरनगर गोली कांड उसी साल हुए। श्रीनगर में श्रीयंत्र टापू कांड हुआ। आंदोलनकारियों ने जान की परवाह नहीं की। घरेलू महिलाएं-युवा-बुजुर्ग-हर जाति-धर्म के लोग-शिक्षक-कर्मचारी सड़कों पर उतर आए। पत्रकारों ने इस आंदोलन को जो अभूतपूर्व समर्थन दिया, उसकी मिसाल नहीं। उन्होंने UP Police-PAC की लाथियों को भी कई बार सहा लेकिन अपना फर्ज अदा करने से वे बिल्कुल भी नहीं डरे। न सहमे न हिचके। मुजफ्फरनगर कांड के बाद October-1994 में पूरे शहर में Curfew लगा दिया गया था। पत्रकारिता करना और अखबारों को लोगों तक पहुंचाना बहुत बड़ी चुनौती हो चुकी थी।

Chetan Gurung

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सरकार और पुलिस-PAC की नजरों में पत्रकार उनके शत्रु से कम नहीं थे। ऐसी ही एक कर्फ़्यू वाली मध्य रात (शायद 1.45 बजे थे) मैं Office से काम निबटा के (तब हम पत्रकार बिना नागा छुट्टी किए सुबह 7 बजे से आधी रात तक ऐसे ही काम करते थे) घर जा रहा था। बिंदाल पुल (चकराता रोड) पर PAC के नाके पर मुझे एक सूबेदार ने कार्बाइन सीने पर लगा के बदतमीजी से बात करते हुए पहले तो पूछा कि कहाँ से आ रहे। फिर पूछा इतनी रात क्यों आ रहे। फिर Curfew पास पूछा। फिर कहा, गोली भी मार सकता हूँ। कर्फ़्यू लगा है। वह नशे में भी था। साथ के उसके PAC जवानों को एहसास था कि उनके सूबेदार गलती पर हैं। वे खामोश खड़े रहे। तब तक कोतवाली पुलिस गाड़ी गुजरी। वे मुझे देख के रुक गए। माजरा समझा तो उन्होंने सूबेदार को चेताया और मुझे घर जाने को कहा।

एक बार एक National English Daily के साथी पत्रकार राजेंद्र बंसल और मैं Survey Of India में नया गाँव-राजपुर रोड जाने वाले बाई पास पर आंदोलन के प्रभाव को देखने गए। स्टेडियम के आखिर में सड़क के बीच पेड़ गिरा के रास्ता रोका हुआ था। मैं उसको हटाने बाइक से उतरा ही था कि दो पेट्रोल बम करीब आ के गिरे। गनीमत है कि आग मुझ तक नहीं पहुंची। मैंने चौंक के देखा तो झड़ियों में कुछ आंदोलनकारी छिपे युवक दिखे। मुझे देख के उन्होंने पहचान लिया। माफी मांग के ये कहते हुए भाग निकले कि उन्होंने LIU के लोग समझ के हमला कर दिया था। ऐसे ही कई किस्से साथी पत्रकारों के साथ उस वक्त खूब हुए। पत्रकारों पर लाठी चार्ज हो जाना उन दिनों सामान्य बात हो चुकी थी। हकीकत ये है कि पत्रकारों ने उत्तराखंड आंदोलन की लौ को न सिर्फ जलाए रखने में अहम भूमिका निभाई बल्कि उसमें घी-तेल डाल के उसको रोशन भी करते रहे। अमर उजाला और दैनिक जागरण के खिलाफ मुलायम सरकार ने हल्ला बोल भी कर डाला था। DJ के मालिकों ने माफी मांग जान छुड़ाई थी। वह दिवंगत अतुल माहेश्वरी जी का अमर उजाला था। झुका नहीं। उस वक्त इस अखबार की हैसियत किसी भी बड़े शास्त्र-पोथी से कम नहीं थी। इसके पत्रकारों की इज्जत का जवाब नहीं था। आज का अमर उजाला उस वक्त के अपने ही संस्करणों और इतिहास की छाया से भी कोसों दूर है।

उत्तराखंड राज्य का गठन 8 और 9 नवंबर-2000 की रात हुआ था। परेड मैदान पर अन्तरिम BJP सरकार (अंतरिम CM नित्यानन्द स्वामी) ने शपथ ली थी। तभी मालूम चल गया था कि आने वाले सियासी साल और शहादतों-खूंरेजी के बाद मिले उत्तराखंड राज्य की तस्वीर किस किस्म की रहने वाली है। अन्तरिम सरकार में ही मुख्यमंत्री बदल गए। स्वामी की जगह भगत सिंह कोश्यारी आखिरी 4 महीने कुर्सी पर बैठे। फिर आपसी जूतम पैजार ने उत्तराखंड राज्य देने के बावजूद BJP को सरकार से उतार डाला। Congress बिना उम्मीद के भी सरकार में आ गई। हरीश रावत को ना-उम्मीद कर आला कमान ने कभी उत्तराखंड राज्य का विरोध करने वाले ND तिवारी को CM बना दिया। NDT कभी संतोष से नहीं बैठ पाए। बावजूद इसके कि उन्होंने 5 साल पूरे किए। BJP की सरकार 2007 में आई। CM के लिए मारामारी का बेशर्म नजारा दिखाई दिया। BC खंडूड़ी CM बने। कोश्यारी-निशंक-केदार सिंह फोनिया-हरबंस कपूर ताकते रह गए।

पूर्व सैन्य अफसर और राजनीति की गहरी समझ से कोसों दूर BCK बगावत नहीं झेल पाए। कुछ नौकरशाहों और चेलों ने उनकी लुटिया डुबो डाली। उनके सचिव प्रभात कुमार सारंगी का तब दबदबा था। उमेश अग्रवाल और अनिल गोयल तथा डॉ अनिल जैन उनके बेहद खासमखास होते थे। बीच कार्यकाल में ही खंडूड़ी हटा दिए गए। डॉ रमेश पोखरियाल निशंक की लॉटरी निकली। मुख्यमंत्री बन गए। वह 2012 के चुनाव से 6 महीने पहले अचानक हटा दिए गए। BCK एक ही विधानसभा कार्यकाल में 2 बार CM बन गए। BJP के सूबेदारों-मनसबदारों ने सियासत कर उनको कोटद्वार की जंग में धराशाई कर डाला। ये तब हुआ जब वह चुनाव `खंडूड़ी है जरूरी’ के नारे के साथ ही लड़ा गया था।

Congress सत्ता में BCK की हार के चलते ही लौट आई। उसके पास एक सीट की ही बेहद मामूली बढ़त थी। खंडूड़ी जीत जाते तो न सिर्फ BJP सरकार में बनी रहती, बल्कि मुख्यमंत्री भी वही रहते। Congress का हाल भी बिल्कुल BJP जैसा रहा। हरीश को एक बार फिर निराश कर आला कमान ने हेमवती नन्दन बहुगुणा के पुत्र और HC Judge रहे विजय बहुगुणा को सरकार की कमान सौंप दी। हरीश Lobby ने VB को कुर्सी से उतार के छोड़ा। HR की लंबी इच्छा पूरी हुई। वह गद्दीनशीं हुए। VB ने भी हरक सिंह रावत की मदद से हरीश को कहीं का नहीं छोड़ा। सियासी चालों के चलते हरीश को हटना पड़ा। वह SC गए। जीते और सत्ता में वापिस लौटे। वह प्रतिष्ठा और ताकत गंवा चुके थे। मोदी-शाह के हमलों को झेल नहीं पाए। पार्टी में भीतरी दगाबाजी उनको बहुत कमजोर कर गई। 2017 में सब कुछ हार बैठे। BJP सरकार में वापिस आई।

त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने सबसे मजबूत प्रतिद्वंद्वी प्रकाश पंत को पीछे छोड़ CM बनने का सम्मान पाया। उनके खिलाफ भी विरोधी अंदर ही अंदर सुरंग खोद के उनकी कुर्सी तक जा पहुंचे। 4 साल पूरे होने से 4-5 दिन पहले उनकी कुर्सी चुपके से खिंचवा ली गई। TSR-1 एक हफ्ते पहले ही PM नरेंद्र मोदी से बहुत अच्छी मुलाक़ात कर के लौटे थे। उनको भनक तक नहीं लगी थी कि उनकी छुट्टी होने वाली है। तब तक माना जाता था कि वह मोदी-शाह के बहुत करीबी हैं। तीरथ सिंह रावत उनकी जगह Covid-19 के भीषण दौर में CM बने। फटी जींस-200 साल अमेरिका का भारत में राज के उनके बयान उनकी गद्दी उनके विधानसभा चुनाव 6 महीने से पहले लड़ के जीतने की बाध्यता से पहले ले उड़े।

इसके बाद आया पुष्कर काल। ऐसे CM, जिन्होंने जिन्होंने स्थिर सरकार दी है। तीरथ को अप्रत्याशित रूप से हटा के मोदी-शाह ने 2 बार के विधायक और कभी राज्यमंत्री तक न रहे युवा पुष्कर सिंह धामी को सरकार और विधानसभा चुनाव फतह करने की असंभव सी नजर आने वाली कमान सौंपी। चुनाव में BJP से खुद पार्टी के लोग 15-20 से अधिक सीट की उम्मीद नहीं कर रहे थे। फिर उत्तराखंड का सियासी इतिहास यहाँ किसी भी दल को लगातार 2 बार सत्ता न सौंपने का था। पुष्कर ने गज़ब किया और मोदी-शाह की छाया में वह कर दिखाया जो कभी नहीं हुआ। उन्होंने 47 सीटें जितवा के BJP को और मजबूती से सरकार में लाने में सफलता पाई। वह खटीमा में अपना चुनाव हारे। उस Congress प्रत्याशी भुवन कापड़ी के खिलाफ, जिनका खनन से जुड़ा एक Video इन दिनों खूब Viral हो रहा। उसमें ये कहते दिख रहे कि सरकार आने पर 5 मंत्री उनकी जेब में होंगे। 50 लाख रूपये स्टोन क्रशर लगवाने की एवज में मांगते दिख रहे।

हो सकता है कि भुवन इस Video को Fake या AI Generated कह दें। बहरहाल,मैं इसकी पुष्टि करने की सूरत में नहीं हूँ। इतना सच है कि PSD को खटीमा में शिकस्त के लिए विपक्ष न हो के पार्टी के भीतर मौजूद जयचंद-मीर जफर-विभीषण जिम्मेदार थे। कुछ मंत्रियों और बड़े नेताओं को ले के ये बातें सामने आईं कि उन्होंने Congress को हर किस्म से मदद की। पैसा तो दिया ही। उनको अहसास हो गया था कि BJP अप्रत्याशित रूप से इतिहास लिखते हुए फिर सरकार में आ रही। पुष्कर को PM-HM ने पहले ही CM Project कर दिया था। उनको रोकने का एक ही उपाय नजर आया था। जीतने से ही रोक दिया जाए। मोदी-शाह को हर खबर थी। उन्होंने ऐसे लोगों को दंड देने और कसमसाने के लिए वादे के मुताबिक फिर पुष्कर को ही CM बना दिया।

PSD ने दूसरे कार्यकाल में हर वह बड़े और अहम फैसले लिए, जो युवाओं-अवाम-संघ के मुफ़ीद हैं। मोदी-शाह को और क्या चाहिए! उत्तराखंड के मुख्यमंत्री अकेले ऐसे हैं, जो बीजेपी शासित अन्य राज्यों की सरकारों के सिर दर्द मुखिया के मुक़ाबले न सिर्फ दोनों के अधिक वफादार बल्कि खुद को अधिक काबिल साबित करने में सफल रहे हैं। लोकसभा-विधानसभा से ले के हर छोटे-बड़े चुनावों में नतीजों के मामले में पारस पत्थर साबित हुए हैं। ये बात सच है कि अभी भी उनकी जगह खुद या किसी और को लाने के लिए BJP में ऐयारी खूब चल रही। पुष्कर उनकी हर चाल को बाखूबी काटने में सफल रहे हैं। मोदी-शाह का यकीन और आशीर्वाद तथा दोनों का ही अब उत्तराखंड को पूर्व CM की Factory न बनने देने की सोच विरोधियों पर भारी पड़ रही है। Silver Jubilee मनाने से 4 साल पहले 21 सालों में देवभूमि में स्वामी-कोश्यारी-NDT-BCK (2 बार भूतपूर्व हुए)-निशंक-VB-हरीश-TSR-1,TSR-2 Ex CM हो चुके हैं।

उत्तराखंड बनने से अगर कोई मजे लूट रहे तो उनमें राजनेता-नौकरशाह-Land-खनन-शराब Mafia सबसे ऊपर हैं। उत्तराखंड आंदोलन के दौर में स्कूल पढ़ रहे और मोहल्लों में भी दुत्कारे जाने वाले छुटभैय्या लोग मंत्री-Speaker-MP-MLA-Mayor-पालिका-जिला पंचायत अध्यक्ष बन गए। उनके ठाठ पुराने दौर के राजाओं और रियासतों के नवाबों से अधिक नजर आते हैं। विनोद चमोली को इनमें एस जुदा मानूँगा। किसी भी BJP सरकार में उनको मंत्री बनने का हक नहीं मिला। वह खाँटी उत्तराखंड आंदोलनकारी रहे हैं। आज की दशा ये है कि जो कभी मामूली जमीन दलाल-शराब तस्कर-कारोबारी हुआ करते थे, वे आज खुद को Real Estate कारोबारी कहते हैं। मंत्रियों-अफसरों के साथ ठसक से उठ-बैठ रहे। बड़े-बड़े कॉलेज-विवि खोल के बैठे हैं। जो देसी शराब के ठेके लिया करते थे, वे या उनके बच्चे भी आज नामचीन कारोबारी हो गए हैं।

सत्ता के गलियारे में दलालों का दबदबा दिखता है। बड़े अफसरों को उनकी जी-हुज़ूरी में देखा जा सकता है। खनन-शराब के क्षेत्र पहले से ही इस मामले बदनाम हुआ करते थे। अब शिक्षा का क्षेत्र भी अछूता नहीं रह गया। नौकरशाह इतने शक्तिशाली हो गए हैं कि मंत्री भी उनके सामने पानी भरते हैं। विधायकों की तो कोई बिसात नहीं रह गई है। विडम्बना ये है कि अब उत्तराखंड में वे नौकरशाह अधिक रह गए हैं, जिनकी नर्सरी की पढ़ाई UP में नहीं हुई। उनको सिखाने-समझाने वाले आला किस्म के नौकरशाह Retire हो चुके हैं। IAS-IPS-IFS Cadre में चुनिन्दा अफसर ही ऐसे रह गए हैं, जो UP के दौर के हैं।

UP के दौर में DM-SSP-SP या DIG (Range-Zone) बनना बहुत मुश्किल हुआ करता था। सिफ़ारिशें अधिक काम नहीं आया करती थीं। काबिलियत को भी भरपूर तवज्जो मिला करती थी। उत्तराखंड में इन कुर्सियों को कभी भी कितनी भी छोटी सेवा में हासिल करना बाएँ हाथ का खेल दोनों Cadre के अफसरों के लिए हो चुका है। कोतवाल तक अपने कप्तान-DGP पर भारी पड़ रहे हैं। DIG (Range) को कौन पूछे। PCS से IAS और PPS से IPS बनना कोई बड़ा या ना-मुमकिन सा सपना नहीं रह गया है। खराब Record या Law Department भी अब उनको All India Service में जाने से नहीं रोक पाता है। तमाम मिसालें अभी भी जिंदा हैं। इन सबसे इतर लेकिन उत्तराखंड राज्य के गठन में अहम भूमिका निभाने और रात-दिन-बारिश-सर्दी-गर्मी-लू-तूफान-बर्फबारी-पुलिस की जालिमियत को नजर अंदाज कर खून-पसीना एक करने वाले उस वक्त के पत्रकारों की दशा क्या है!

सरकार तो क्या खुद उनके संस्थानों के मालिकों ने भी उनको धक्का दे दिया। अमर उजाला-DJ (आंदोलन के दौर में यही अखबार थे।बाकी सब या तो नगण्य भूमिका में थे या बे-असर और उत्तराखंड बनने के बाद आए) में एक भी वह पत्रकार संपादक नहीं बन पाया, जो तब Field की दुष्कर-कठिन पत्रकारिता कर रहे थे। जिन्होंने पुलिस की लाठियों की परवाह भी नहीं की। हंस के फख्र से बताया करते थे कि आज तो उनको पुलिस-PAC के डंडे पड़े। Management के चमचे बने रहे लोग ही Editor बने। अधिकांश वे, जो UP से आए। आज भी वे खूब आ रहे। यहाँ शानदार जिंदगी गुजार रहे। उनके लिए ये भी खुशी की बात होती है कि जमीन घोटाले में ED की गिरफ्तारी के बाद कोई बड़ा नामचीन आरोपी जमानत पर बाहर आया है।

उत्तराखंड आंदोलन के दौर के कई पत्रकारों ने मुफ़लिसी में दम तोड़ डाला। उनके बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ने और दो जून की डाल-रोटी को तरस गए या अभी भी जूझ रहे रहे। कईयों के सिर पर अपने घर की छत न हो के दड़बे में परिवार के साथ गुजर-बसर के लिए मजबूर हैं। निराशा-हताशा-संघर्ष-बेहाली-गरीबी और बीवी-बच्चों की अभावग्रस्त जिंदगी को देख वे घुट-घुट के मर रहे। अनेक पत्रकारों को मैं निजी तौर पर जानता हूँ। साथी हैं। अमर उजाला-हिंदुस्तान-दैनिक जागरण में नौकरी की या कर रहे हैं। उनकी हालत बहुत खराब है। वे आज अपनी उम्र से 10-15 साल अधिक के दिखने को मजबूर हैं। एक कथित राष्ट्रीय दैनिक के पत्रकार और उसकी पत्नी Cancer से लड़ रहे। उनके पास ईलाज के लिए पैसे नहीं। संस्थान भी एक दिन उसको निकाल बाहर करेगा। ये सब वे हैं, जो उत्तराखंड के पहाड़ से ही नाता रखते हैं। कोई टिंबकटू या बिहार-UP से नहीं आए हैं।

कई कथित बड़े अखबारों ने अपने शरीफ किस्म के उन पत्रकारों को किसी न किसी बहाने निकाल बाहर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जो उनके धंधेबाजी वाले पैमाने पर खरा नहीं उतर रहे थे। इनमें से कई अपना स्वतंत्र काम कर रहे या फिर सूचना विभाग में विज्ञप्ति-सरकार के लिए स्टोरी तैयार करने और Translation का काम कर रहे। कुछ समझदार लोग आयोगों में ठिकाना पा गए। कुछ जिलों में ही किसी तरह सरकार की संस्थाओं में Adjust होने में सफल रहे। मुख्यमंत्री पुष्कर को पत्रकारों के मामले में भी बेहद संवेदनशील समझा जाता है। उनकी मदद को वह कतराते नहीं हैं। उम्मीद है कि वह साल-1993-94 से ले के साल-2000 तक के संघर्षशील रहे दैनिक-साप्ताहिक-मासिक अखबारों के पत्रकारों के लिए एक खास Policy ले के आएंगे।

मुख्यमंत्री पुष्कर को इसके लिए एक समिति का गठन करना होगा। समिति में राज्य गठन से पहले के दौर के पत्रकारों-अफसरों को ही शामिल किया जाना उचित रहेगा। वे तब के हालात और पत्रकारों को अच्छी तरह जानते-समझते हैं। साथ ही सरकार को आज बेहाली-दुर्गति में जी रहे, अपने संस्थानों के उपेक्षित बर्ताव के मारे पत्रकारों के कल्याण-पुनर्वास की खातिर कुछ बड़ा कदम जरूर उठाना चाहिए। इसको भूना नहीं चाहिए कि पत्रकारों का साथ न होता तो उत्तराखंड आंदोलन को न ऑक्सीज़न मिलता न राज्य और सरकारें बनतीं और न इतने सारे नेता मंत्री-मुख्यमंत्री और बड़े ओहदों का स्वप्निल सुख ले पाते। न Average किस्म के तमाम अफसर इतनी अहमियत सरकार में पा रहे होते। आज उत्तराखंड अपने जन्म का रजतोत्सव मना रहा है तो दिल-दिमाग की बात सामने आ गई।

 

 

 

 

 

 

 

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