अंतरराष्ट्रीयउत्तराखंडदेशराष्ट्रीय

खबरों में खबरनवीस!!सत्ता से भिड़ने-गोदी में बैठने का दौर! नदारद संतुलन

The Corner View

Chetan Gurung

खबरनवीस इन दिनों खबरों में हैं। अपनी खास खबरों से ज्यादा इतर कारणों से। किसी पर सत्ता की गोद में बैठने के लांछन है। किसी पर पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हो के सत्ता से भिड़ने का। दोनों ही थोड़ा हकीकत-थोड़ा फसाना वाला मामला है। अलबत्ता, पत्रकारिता लगातार रसातल में जा रही। पत्रकारों की विश्वसनीयता हर गुजरते दिन के साथ गिरती जा रही। वह दिन अब हवा हुए जब अखबार में एक पैरा या लाइन छोड़िए,एक शब्द भी मायने रखा करते थे। अब पूरा अखबार-You Tube Channel रंग दो-भर दो। चाहे तारीफ से या फिर आलोचना से। रत्ती भर का फर्क नहीं पड़ता दिखाई देता है। पत्रकारिता का मूल गायब हो चुका है। या फिर तेजी से गायब होता जा रहा। तथ्यों पर आधारित और खोजी-समाज की दिक्कतों से जुड़ी खबरें-Special Stories अब नहीं दिखाई दे रही हैं। लोगों का दिली जुड़ाव न किसी किस्म के अखबारों से और न Main Stream या You Tube Channels से रह गया है। पत्रिकाओं को तो भूल ही जाओ। मौजूदा दौर को देख लें। पत्रकार समुदाय सीधे-सीधे दो खेमों में बंटे हुए दिखाई देते हैं। एक-जो व्यवस्था के खिलाफ नहीं देख पाता है। दो-जिसको सत्ता के हर फैसले-कामकाज में अच्छा नहीं दिखता। ऐसा कभी नहीं होता कि सत्ता में सब अच्छा या फिर सब बुरा ही हो। बस पत्रकारिता से संतुलन खत्म हो गया है।

CM Pushkar Singh Dhami को पत्रकारों के साथ अच्छे रिश्तों के लिए भी जाना जाता है

———————-

 

ये विडम्बना है कि खबरों की दुनिया के छोटे-मँझोले और खुद को उस्ताद मानने वाले खिलाड़ी आपस में ही भिड़े हुए हैं। Social Media (खास तौर पर FB-Whats app पर) पर सरसरी निगाह भी मारे तो इसका साफ पता चलता है। ऐसा लगता है कि पत्रकारिता को छोड़ कलमनवीस (Computer-HighTech Mobile युग में भी यही शब्द जंचता है) खेमेबाजी और निहित स्वार्थों में रम चुके हैं। या फिर चलने को बेकरार हैं। मुझे पत्रकारों के ठाठ-स्तरीय रहन सहन से खुशी होती है। आखिर समाज का ठेका सिर्फ दीन-हीन रहते हुए पत्रकार ही क्यों लें! उसकी भी अपनी दुनिया है। घर-परिवार और अच्छी जिंदगी जीने की तमन्ना रखने वाले बड़े होते बच्चे हैं। दिक्कत तब आती है जब हम खुद को ईमानदार और असली बाकी को बे-ईमान-दलाल-फर्जी का Certificate देने में जुट जाते हैं। मंत्री-अफसरों पर Tag लगाने लगते हैं। मेहनती-ईमानदारी-बेईमानी का। खुद के भीतर झाँके हम। क्या वाकई हम सभी दूध के धुले हैं? किसी भी Media संस्थान में हम नौकरी कर रहे हों या फिर अपना ही छोटा-बड़ा संस्थान चला रहे हों, पत्रकारिता से समझौते अमूमन अधिकांश करते ही हैं। कुछ अपवाद जरूर दिखे। ये बात दीगर है कि उनमें से भी अधिकांश का कभी Acid Test समझौतों को ले के कभी हुआ नहीं या फिर पता चला नहीं।

अपना ही काम-धंधा शुरू कर चुके और अच्छा-खासा कमा रहे पत्रकारों से ईर्ष्या स्वाभाविक है। खास तौर पर नौकरीशुदा पत्रकारों को। जो रोजाना-सुबह से देर रात तक तनाव और अभाव में पल-पल गुजार रहे। एक लड़ाई असली-नकली-तू गोदी मैं Fighter पत्रकारों के साथ इनमें भी है। बड़े संस्थानों में नौकरी वाले पत्रकार खुशफहमी में जी रहे कि उनकी धमक और पूछ है। एक बार बड़े संस्थानों की नौकरी छोड़ के देखें तो सच्चाई सामने आने में देर नहीं लगेगी। राजनेताओं-सत्ता से जुड़े लोगों और अफसरों को सिर्फ उनके संस्थान से वास्ता होता है। संस्थान छुट जाए उनके तो वे फोन भी शायद ही उठाएंगे। पत्रकारों के लिए अस्तित्व बचाना मुश्किल हो गया है। इसके लिए बड़े हद तक मुझे लगता है वे खुद जिम्मेदार हैं। पत्रकारिता का मतलब न सत्ता के खिलाफ हमेशा चलना है न ही सदा Doggy Media बन जाना। संतुलन जिंदगी में ही नहीं, पेशे में भी बेहद जरूरी है। ये खत्म हो चुका है।

Chetan Gurung

—–

स्वतंत्र या फिर अपना छोटा-मोटा Media संस्थान चलाने वाले पत्रकारों को छोड़ दें। बड़े संस्थानों पर एक नजर मार लें। अखबारों का Circulation रसातल में है। आबादी बढ़ने के बावजूद। News Channels तो खुद Reporter या जिसकी खबर है, वह भी गंभीरता से देखते हैं, इस पर शक होता है। Social Media-News Portals-You Tube Channels ने मूल धारा वाले कथित Media संस्थानों को झकझोर डाला है। एक घटना जो मानो सुबह-सुबह होती है,उसको कोई News Portal मानो सुबह ही Broadcast कर दे तो 24 घंटे बाद छप के आने वाले अखबार में कुछ Additional और बेहतर खबर तो उस पर दिखनी ही चाहिए। नहीं तो उस पर सरसरी नजर भर डाली जाएगी। Portals-YTC उस पर कई Updates दे चुके होते हैं। मेरा खुद का अनुभव इसकी मिसाल है।

मैंने एक दिन एक बहुत बड़ी खबर अपने Portal पर Break की। सुबह-सुबह। दिल्ली में बैठी उस देश की Embassy से और खुद को International Media बताने वाले पत्रकारों के फोन तुरंत ही आने लगे। सरकार भी हिल उठी। फौरन Police Case दर्ज हुआ। दो देशों का मामला था। अगले दिन अखबारों में सामान्य सी खबर पुलिस रिपोर्ट के हवाले से छपी थी। जिसको शायद ही किसी ने अखबार में नोटिस किया। कुछ साल पहले मैंने शराब Mafia-सत्ता गठबंधन पर Series चलाई। Bank Guarantee-दुकानों की नीलामी से जुड़े फर्जीवाड़े-Excise Policy Policy पर। कई दिनों तक ये धुआंधार Series चली। ताज्जुब हो सकता है कि खबरों को सूंघने के लिए रखे गए बड़े कथित अखबारों और Channels के किसी भी पत्रकार ने कोई Story इन पर करने की जहमत नहीं उठाई या हिम्मत नहीं की। सरकार (तब CM त्रिवेंद्र सिंह रावत थे) ने Excise Policy पर Cabinet Roll Back लिया। शराब की दुकानों की बोली रद्द की। 3 DEO (जिला आबकारी अधिकारी) एक साथ Suspend किए। मुझे सिर्फ एक अखबार में एक कॉलम में 3 DEO निलंबित शीर्षक से खबर अगले दिन दिखी। इतनी बड़ी खबर को एक किस्म से निबटा दिया गया था। मजबूरी थी। वरना छपती भी नहीं।

पत्रकारों से दो ही उम्मीद अवाम या पाठक रखती है। उनकी दिक्कतों को असरदार ढंग से उठाया जाए या फिर सत्ता में छिपे घोटालों को पुख्ता ढंग से उजागर किया जाए। पत्थर मार के भाग जाने वालों को वे पसंद नहीं करते हैं। मसलन,एक दिन खबर छापी और अगले दिन से खबर पर कोई Follow Up नहीं। पूर्वाग्रहों से लिप्त खबरों को पसंद नहीं किया जाता है। ये पत्रकारिता भी नहीं है। हो लेकिन यही रहा। हाल के सालों में बहुत मामूली संख्या में अखबार नवीस या फिर पत्रकार बड़े घोटालों को सामने लाने में सफल रहे हैं। जिन पर लिख रहे या जिनको दिखा रहे, उन पर ठोस प्रमाण पेश नहीं कर पा रहे। समाचार वायुमंडल में जो सही-झूठी खबर तैरती है, अधिकांश उसी पर कलम-जुबान और Computer-Laptop पर हाथ चलाने लग जाते हैं। इसको खोजी पत्रकारिता कैसे कह सकते हैं? जो खबर खुद Break न की हो। सिर्फ उड़ती-तैरती खबर पर Story बना दें, वह कहाँ से खोजी रिपोर्ट हो गई? कई दिन-हफ्ते लगा के,दस्तावेजों-Visuals के सहारे और हर पक्ष से बात करने के बाद Story की जाए तो उसको खोजपरक कहा जा सकता है। महज Anchoring-दूसरों की तैयार Script पढ़ देने से कुछ वक्त सुर्खियां मिल सकती हैं लेकिन ये जल्द ही खत्म भी हो जाया करती हैं।

पत्रकार के लिए शब्द-जुबान-व्यवहार पर ध्यान देना समान रूप से जरूरी होता है। सरकार या प्रतिष्ठान के खिलाफ खबरें करने का मतलब ये भी नहीं होना चाहिए कि दुश्मनी ही ले ली जाए। या फिर जिस पर खबर की,वह दुश्मन ही मान लें। पत्रकार और पत्रकारिता का नुक्सान यहीं होता है। निजी व्यवहार और पत्रकारिता एकदम अलग-अलग है। ये भी ख्याल रखना होता है। व्यवहार अच्छा रखने का मतलब खबरों से समझौता भी नहीं होता है। दोनों में संतुलन रखा जा सकता है। ये कोई इतना मुश्किल काम भी नहीं है। दो मुख्यमंत्री थे। 2 मंत्री थे। चारों से बहुत पुराने और निजी रिश्ते थे। नौकरी के दिनों में उनसे फोन पर या फिर मिलने के दौरान खूब बातें हुआ करती थीं। लब्बो-लुआब ये कि सरकार और उनके महकमों से जुड़ी खबरें फिर भी खूब लिखीं। वे कभी नाराज नहीं हुए। अलबत्ता, उनके करीबी और विश्वासपात्र ये जरूर तकाजा करते थे कि कभी आशीर्वाद भी दे दें।

डॉ हरक सिंह रावत मंत्री रहने के दौरान मेरी दो खबरों को ले के खूब सुर्खियों में रहे। एक पौड़ी के पटवारी भर्ती घोटाले के दौरान। जब वह राजस्व मंत्री थे। दो-जब जैनी Sex Scandal पर मैंने तमाम Stories की। वह कभी मुझसे गुस्सा नहीं हुए। मुझे याद है तब CM ND तिवारी हुआ करते थे। पटवारी भर्ती घोटाले पर एक दिन गुस्से में या फिर परेशान हो के मंत्रिमंडल बैठक में NDT ने कह दिया था कि वह फलां तारीख को इस्तीफा दे देंगे। मैंने इसको भी अगले दिन Front Page पर छाप दिया था। Rangers College Ground पर एक Trade Fair के दौरान अगले दिन पत्रकारों ने उनको घेर लिया था कि वाकई वह इस्तीफा देने वाले हैं। बेहद शातिर-कूटनीतिज्ञ-राजनीतिज्ञ ND ने पूरे 5 साल राज किया। फिर सत्ता BJP को हस्तांतरित कर आंध्र प्रदेश Governor बन के चले गए। जहां वह Sex Scandal में घिरे। आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर की तरह उनका राजनीतिक और निजी जीवन का अंत बहुत दुखद रहा। भर्ती घोटाले से भी बड़ा मामला जैनी Sex Scandal का था। इसमें मुख्यमंत्री तिवारी ने हरक से इस्तीफा बहुत चालाकी से करवा लिया था। इसकी CBI जांच भी बैठ गई थी। हरक आखिरकार साफ बच के निकल गए। दोनों मामलों में हरक ने कभी निजी तौर पर नाराजगी मुझसे नहीं दिखाई।

बतौर पत्रकार मैंने बड़ी खबरें ब्रेक की तो व्यक्तिगत तौर पर मदद भी की। जैनी पर तब अंगुली उठ गई जब मैंने Front Page पर ये Story की कि जच्चा-बच्चा Card पर नवजात बच्चे के पिता का नाम बबलू लिखा हुआ है। ये Card देहरादून के घंटाघर के करीब स्थित हकीकतराय नगर के PHC से बना हुआ था। मैंने लिखा था कि अगर नवजात शिशु का पिता मंत्री हरक हैं तो फिर बबलू कौन है? क्या दोनों एक ही शख्स हैं? क्या हरक को ही जैनी प्यार से बबलू कहती है? या दोनों अलग-अलग शख्स हैं? खबर छपते ही हरक का मुझे फोन आया था कि इस कार्ड की Foto Copy दे सकते हैं? जांच में बहुत काम आएगा। मैंने खुद उनके यमुना कॉलोनी वाले आवास पर जा के कार्ड की फोटो कॉपी उनको सौंपी थी। कहने का आशय ये कि मेरी मंशा उनको निजी तौर पर क्षति पहुंचाने की नहीं थी। सिर्फ खबर कर रहा था। Sidcul घोटालों (I-II) में कई नौकरशाह फंसे। मैंने दोनों पर खूब लिखा। हकीकत ये है कि इसके बावजूद उन सभी से आज भी मेरे अच्छे रिश्ते हैं। उन्होंने सामाजिक-पेशेगत झटके सहने के बावजूद मुझसे नाराजगी कभी नहीं रखी। अब कुछ Retire हो चुके हैं तो कुछ अभी सेवा में हैं।

पत्रकारों को पहले भी बहुत सोच-समझ के चलना होता था। खास तौर पर NDT के दौर में। जब इन्दिरा हृदयेश सूचना और PWD मंत्री के साथ ही वित्त-संसदीय कार्य मंत्री थीं। उनको गुस्सा बहुत आता था। रंजिश रखती थीं। अहम भाव भी बहुत था। तमाम पत्रकार उनके खिलाफ जाने का दुस्साहस छोड़ चुके थे। आज का दौर उससे अधिक कठिन है। ऐसे में पूर्वाग्रही हो के असंतुलित पत्रकारिता नुकसानदेह हो सकती है। आपस में लड़ाई और पूर्वाग्रह और बुरे दिन दिखा सकती है। जो इन दिनों चल रहा है। पत्रकारों को मिल रहे सरकारी विज्ञापनों को ले के पत्रकार ही एक-दूसरे को ठेल-पेल रहे। उत्तराखंड बनने के बाद से ही पत्रकार संगठनों और उत्तरांचल प्रेस क्लब के प्रतनिधिमंडलों ने सरकार से ये मांग हमेशा प्रमुखता से रखी है कि विज्ञापनों की संख्या बढ़ा के अखबारों-पत्रिकारों-Channels को आर्थिक रूप से मदद करें।

हर मुख्यमंत्री ने इस पर अमल किया। सभी ने लगातार विज्ञापन बजट में इजाफा कर पत्रकारों को राहत देने की भरसक कोशिश की। आज के CM पुष्कर सिंह धामी को इसके लिए भी जाना जाता है कि वह पत्रकारों के साथ पुराने रिश्तों को याद रखते हैं। उनकी मदद किसी भी तरह करने से नहीं हिचकते हैं। पत्रकारों की सरकारी खजाने से आर्थिक मदद-विज्ञापनों के जरिये मदद या फिर उनकी मृत्यु पर पत्नी को सरकारी नौकरी देने में वह उदार रहे हैं। ये कहा जा रहा है कि वह प्रचार पर सैकड़ों करोड़ रूपये खर्च कर रहे हैं। विज्ञापन बढ़ेंगे तो बजट खर्च भी बढ़ेगा ही। जो खर्च इन दिनों दिखाया जा रहा है, वह 4 साल का है। ये तथ्य भी अंजाने में या फिर शायद जान-बूझ के सामने नहीं लाया जा रहा। पत्रकार बस आपस में ही उलझे और निबटाने या एक-दूसरे को बदनाम करने में मशरूफ़ हैं। बड़ी और सामाजिक महत्व की खबरें तलाशने के बजाए खुद खबर बने हुए हैं। क्या वे चाहते हैं कि सरकार विज्ञापन एकदम बंद कर दें। या फिर बहुत कम कर दें? जरा सोचिए..

 

 

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button