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मौजूं मुद्दा!!चुनौतियाँ ही पत्रकारिता का लुत्फ

The Corner View

Chetan Gurung

पत्रकारों और पत्रकारिता पर इन दिनों खूब सुर्खियां बन रहीं। Social Media में। मुख्य धारा के TV News Channels-अखबारों से इतर। पत्रकारों को नोटिस या फिर अन्य किसी तरह निशाना बनाने को ले के दो किस्म के पत्रकारों की प्रतिक्रियाएँ दिख रहीं। एक जो सरकार का हक में बोल रहे और दूसरे वे जो पत्रकारों के लिए आवाज बुलंद कर रहे। बड़े अखबारों से जुड़े पत्रकार सदा की भांति तटस्थ और खामोश रुख पर कायम हैं। उनको लाला की नौकरी बजानी और बचानी है। ठीक भी है। परिवार और पेट पहले। किसी भी Media संस्थान को ये गवारा नहीं है कि उसके PayRoll पर चल रहे लोग सरकार या फिर किसी भी अन्य रसूख वाले शख्स और छोटे-बड़े प्रतिष्ठान से नाराजगी-पंगा ले। हालात ये भी है कि छोटी तनख्वाहों पर नौकरी करने के चलते बड़े Media Group के बड़े चेहरों की भी आर्थिक दशा दशकों नौकरी और पत्रकारिता के बावजूद दयनीय ही कहा जा सकता है। उनसे कम पत्रकारिता करने के बावजूद हर किस्म से तेज-तर्रार और खास तौर पर उत्तराखंड बनने के बाद बाहर से आए आए पत्रकारों या फिर बहुत बाद में इस पेशे में आए पत्रकारों को देखें। उनके और पहाड़ की माटी से वास्ता रखने वाले पत्रकारों के जीवन-स्तर में जमीन और आसमान का अंतर साफ दिखेगा। शारीरिक भाव-भंगिमाओं में भी। बहरहाल, अभी मुद्दा पत्रकारों के साथ हो रहे बर्ताव पर बन रही सुर्खियां और उस पर सियासत की घुसपैठ है।

CM Pushkar Singh Dhami-पत्रकारों के प्रति संवेदनशील रहते हैं

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Social Media का दौर है। इसलिए आजकल पत्रकारों को सामाजिक और कई बार सरकार का भी समर्थन गाहे-बागाहे या चाहे-अनचाहे मिल जाता है। इस लिहाज से वे भाग्यवान हैं। पहले ऐसा नहीं हुआ करता था। पत्रकारों पर पहले भी खूब दबाव आते थे। उनको ये दबाव आम तौर पर खुद झेलना पड़ता था। कई बार ऐसा भी होता था कि खबर सौ फीसदी सही होने के बावजूद ये दबाव संस्थान-प्रबंधन के भीतर से आते थे। खास तौर पर बड़ी खबर जिसको अब ब्रेकिंग न्यूज़ कहा जाता है, को ले के। जिसके छपने पर या फिर छपने से पहले अगले दिन उसकी संभावित प्रतिक्रिया को ले के उत्साहित रहने वाले पत्रकारों को तब सोचिए कैसा महसूस होता था होगा। फिर भी वे खामोशी के साथ इस दबाव और तनाव का सामना करते थे। मेरा मानना है कि अगर आप अहम पेशे में हैं। समाज-सरकार-राजनीति-माफिया तंत्र से टकराने-उनसे वास्ता पड़ने वाले पेशे से हैं तो दबाव आना स्वाभाविक है। मेरा मानना है,`इस किस्म की दबाव की चुनौतियाँ ही पत्रकारिता का असल लुत्फ है’। बिना दबाव के Desk-दफ्तर में जिंदगी गुजार के Retire हो जाना पत्रकारिता या तो नहीं है, या फिर रोमांच से महफूज हैं। याद रखिए कि निर्माण में जुड़ा श्रमिक या फिर चौक-चौराहे पर पान बेचने वाला कभी आपको दबाव या तनाव में नहीं दिखेगा।

Chetan Gurung

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मुझे शुरुआती पत्रकारिता जीवन से ही चुनौतियाँ और दबाव से सामना खूब करना पड़ा। मैं कभी लेकिन परेशान हुआ हूँ, ऐसा याद नहीं। सभी का सामना खामोशी के साथ लगातार करता रहा। ये मेरी तकदीर या लोगों की दुआओं और खबरों में तथ्यों की भरमार तथा लिखने से पहले मुट्ठी-दराज में सुबूतों के गट्ठर ने मुझे हमेशा ही आत्म विश्वास से सराबोर रखा। हौसला और हिम्मत की भी जरूरत कई बार पड़ी। उसमें भी कमी नहीं रही। शायद फौजी पिता का पुत्र और शहीद फौजी का भाई होने का असर मेरी जिंदगी में भी पड़ा। दबाव हर किस्म के रहे। कभी नौकरशाही से तो कभी बड़े राजनेताओं-माफिया से। सिख आतंकवादियों से भी। कभी परोक्ष धमकी तो कभी बड़ा प्रलोभन। कुछ नजीरें पेश कर सकता हूँ। पौड़ी में पटवारी भर्ती घोटाले पर मैंने Series चलाई। DM SK Lamba-CDO कुँवर राजकुमार-SDM विनोदचन्द्र सिंह रावत और तमाम छोटे-बड़े नप गए। मुअत्तली के बाद बहाल हुए राजकुमार को IAS मिलने में आफत आ गई थी। रावत का Career भी चौपट हो गया था।

लांबा जब तक सेवा में रहे, खामोश रहे। Retire होते ही मुझे 1 करोड़ रूपये की मानहानि का Notice भेज दिया। मैंने और मेरे संस्थान (तब अमर उजाला) ने कोई माफी नहीं मांगी। ऐसी राय देने वाले हालांकि आए भी कि क्यों फिजूल Court कचहरी में फंस रहे। मैंने इधर से सुना उधर से निकाल दिया। बहुचर्चित दारोगा भर्ती कांड में DGP प्रेमदत्त रतूड़ी की रातों-रात छुट्टी हो गई थी। CBI जांच बैठ गई थी। रोशन Career वाले 51 साल की उम्र के IPS (तब IG) राकेश मित्तल मुअत्तल हो गए थे। कई संदिग्ध और जांच में फर्जी ढंग से Selected पाए गए दारोगाओं को बर्खास्त कर दिया गया था। रतूड़ी ने एक दिन मुझे PHQ बुला के परोक्ष तौर पर खामोश रहने के लिए इशारा किया। मुझे अच्छे से याद है। उनके दफ्तर में तब अनिल रतूड़ी और सतीश शुक्ला (दोनों SP rank के थे। AR तो DGP बन के Retire हुए)। मैंने सिलसिलेवार लिखना बरकरार रखा। PDR Sack हुए और इसका फायदा अब मरहूम कंचन चौधरी भट्टाचार्य को देश की पहली महिला DGP बन कर मिला। वह 1973 Batch की थीं।

उस दौर के प्रमुख सचिव (गृह) सुरजीत किशोर दास बाद में मुख्य सचिव बन के Retire और फिर स्वर्गवासी हो गए लेकिन CBI जांच अभी भी चल रही। ये महज संयोग है कि पटवारी भर्ती घोटाले के दौरान भी वह राजस्व विभाग संभाल रहे थे। लेकिन अपने आप में निहायत बेहद शरीफ-लिखने-पढ़ने के शौकीन और हद दर्जे के मददगार-इंसानियत से लबरेज। उत्तराखंड बने ज्यादा अरसा नहीं हुआ था और देहरादून में फर्जी तकनीकी संस्थानों की मंडी सज गई थी। मैंने इस पर बहुत मेहनत और दिन लगा के Story की। हीरा सिंह बिष्ट तब ND तिवारी सरकार में तकनीकी शिक्षा मंत्री और नृप सिंह नपल्च्याल महकमे के सचिव थे। SP (City) आज की UKSSSC के Boss गणेश सिंह मारतोलिया हुआ करते थे। सरकार के दबाव और Stories के Series छपने पर सचिव के निर्देश पर लगभग दर्जन भर फर्जी संस्थानों के मालिकों के खिलाफ FIR हुई। सभी के मालिक फरार हो गए। फिर अपने ही जान-पहचान वालों के जरिये, जिनमें कुछ पत्रकार मित्र भी शामिल थे, प्रलोभन की पेशकश खूब हुई। बात नहीं बनी तो एक दिन एक सर्द-बारिश की रात एक फरार मालिक मिलने घर आया। उसने खैरख़्वाह बनते हुए कहा कि आपकी जान को खतरा है। हम लोग फरार हो के परेशान हो चुके हैं। SP (मारतोलिया) सचिव (बाद में मुख्य सचिव बने) नृप सिंह बहुत सख्त हैं। वे आपके खिलाफ कुछ योजना बना रहे। तवारीख गवाह है कि अधिकांश संस्थान या तो हमेशा के लिए तालाबंदी को सिधार गए या फिर सुधर गए। बाबा फरीद (BFIT)-उत्तरांचल बायो मेडिकल कॉलेज-Alpine Group of Institute के समेत और भी कई College इनमें शामिल थे।

Siidcul (तब Sidcul) घोटाले 2 बार हुए। दोनों बार मैंने Story break की। NDT सरकार में हुए पहले घोटाले में कई बड़े IAS अफसर और Sidcul के GM फंसे। जब BC खंडूड़ी CM बने तो उन्होंने Eldeco-Sidcul घोटाले पर जांच आयोग बैठा दिया था। साल-2007 का था। तब मैं उत्तरांचल प्रेस क्लब का अध्यक्ष भी था। नौकरशाहों ने कोशिश कर के हिम्मत हार दी थी तो Eldeco आगे आया। उसके बड़े-बड़े साहेबान मिलने के लिए दिल्ली-Noida से आए। खूब लालच दिया-पेशकश की। मैंने उनको टरका दिया तो बोले वे अखबारों में Top पर बैठे लोगों को जानते हैं। जो गीदड़ भभकी थी। मैंने जिस दिन Eldeco की पूरी Team आई थी, उसी दिन Story कर दी। 2-4 दिन बाद सरकार ने जांच आयोग बैठा डाला। Siidcul-2 घोटाले की मैंने पूरी जांच रिपोर्ट छाप दी थी। इसमें भी कई IAS-PCS अफसरों ने मुअत्तली झेली। PCS वाले तो जेल यात्रा भी कर आए। तब भी खूब संदेशे छोड़ दो वाले आए। सुनो और भूल जाओ चलता रहा।

BJP की त्रिवेन्द्र सिंह रावत की सरकार में एक दौर ऐसा भी आया था जब शराब महकमे में Mafia-अफसरों की जबर्दस्त दुरभिसंधि हो चली थी। मैंने एक के बाद एक हर ऐसे गठबंधन और घोटालों की सिलाई उधेड़ी, जिसमें सरकार को करोड़ों का चूना लग रहा था। एक भी अखबार या News Channel खबर करने को राजी नहीं हुआ था। त्रिवेन्द्र ने एक साथ 3 जिला आबकारी अधिकारियों (DEO) को Suspend कर मेरी खबरों पर मुहर लगाई थी। फिर मेरी Story पर उन्होंने शराब के Departmental Stores से जुड़े Cabinet Decision पर Roll Back से भी गुरेज नहीं किया। क्या आपको लगता है कि कोई दबाव शराब Lobby-Mafia से नहीं आया? एक शराब माफिया ने मुझे एक के बाद एक 2 Legal Notice भेजे। मैंने उनको कूड़े में फेंक डाला। जवाब तक नहीं दिया। उसी तरह जैसे लांबा के Legal Notice को मैंने हवा में उड़ा डाला था।

उत्तराखंड Cricket में क्या हो रहा है और किस तरह यहाँ की Cricket के आकाओं का खेल चल रहा, सभी वाकिफ हैं। पिता-पति के हाथों होते हुए अब पत्नी के हाथों चल रही Cricket Association of Uttarakhand के भी Legal Notice पर अदालत में मामला चल रहा। ये तो कुछ भी नहीं। जब देहरादून में सिख आतंकवाद मजबूती से पकड़ जमाए हुए था तो दो Postcard गुरुमुखी में मिले थे। साफ धमकी थी कि लिखना बंद कर-या फिर गोली खा। एक में लिखा था कि तेरा नाम Hit List में दूसरे नंबर पर है। पता नहीं पहले नंबर पर कौन था। लिखना बादस्तूर जारी रहा। एक आतंकवादी जिंदा पकड़ा गया था। उससे मिलने मैं जेल (आज जहां नया अदालत भवन है) पहुंचा। उससे पूछा भी कि ये कोरी धमकी थी या सच में मुझे खतरा था? उसने कहा कि आप एक बार निशाने में आने से बस बच गए।

सियासी दबाव का जिक्र करूँ। एक बार मैंने Story की और सुबह जब मैं परेड ग्राउंड में Batting Practice के बाद घर जाने के लिए पैड उतार रहा था तो सूचना महकमे के एक अफसर के Mobile से फोन आया कि आपने क्या लिख दिया। लीजिए मंत्री जी बात करेंगी। शायद सर्दियों की सुबह के 8.15 का वक्त था। फोन पर अब डॉ इन्दिरा हृदयेश (अब मरहूम) थीं। उनको Super CM का गैर आधिकारिक तमगा हासिल था। पुरानी जान-पहचान थीं। जब वह MLC भी नहीं हुआ करती थीं। उत्तराखंड बना और ताकत आई तो जी-हुजूर पत्रकारों और नौकरशाहों ने उनको भी गलतफहमी-ताकत के गुरूर में डुबो दिया था। वह उस खबर को गलत ठहरा रही थी, जो मैंने शासन की रिपोर्ट के हवाले लिखी थी। कुछ दिन बाद जब विधानसभा का सत्र शुरू हुआ तो पहले ही दिन उनका सवाल स्थगित हो गया। किसी ने नहीं लिखा लेकिन मैंने पहले पेज की स्टोरी बना दी। फिर एक दिन विधानसभा में उनके ही दफ्तर में उन्होंने पुरानी दोस्ती का हवाला दे के नाराजगी दूर की। आज सुनने में ये मामूली बात लग रही होगी लेकिन तब इन्दिरा की इतनी ताकत थी कि वह चाहे किसी की भी नौकरी खा सकती थी।

एक और बड़े मामले का जिक्र न करूँ तो Column अधूरा रह जाएगा। ये तब का मामला है जब BJP की नई सरकार बनी ही थी। नित्यानन्द स्वामी अन्तरिम सरकार के मुख्यमंत्री थे। BJP के ही विधायक लाखीराम जोशी ने टिहरी बांध विस्थापितों के मुद्दे पर सरकार को घेर लिया था। अगले दिन मैं Front Page story कर दी तो सरकार-BJP में खलबली मच उठी। तब अखबार की एक-एक लाइन छोड़िए-हर्फों की भी कीमत हुआ करती थी। प्रकाश पंत (वह भी मरहूम हो गए अब) विधानसभा अध्यक्ष थे। मुझे नोटिस आया कि जो छ्पा है, वैसा कुछ नहीं हुआ है। पंत से मेरे रिश्ते उत्तराखंड बनते ही बहुत अच्छे थे। उन्होंने मुझे बता दिया कि जोशी की वह लाइन Record से हटा दी गई है, जो छपी। मामला सदन की अवमानना का बन रहा था। सोचिए कि कितना दबाव होगा। खैर बाद में उस वक्त के ऊर्जा मंत्री (भगत सिंह कोश्यारी) जो बाद में स्वामी के बाद मुख्यमंत्री बने, के दखल और खुद स्वामी से भी मेरे अच्छे रिश्तों के चलते उस नोटिस को एक सामान्य से जवाब के आधार पर निक्षेपित मान लिया गया था। उस वक्त आज के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी कोश्यारी के साथ थे और बाद में कोश्यारी के CM बनने पर बेहद युवा और शक्तिशाली OSD बने थे। ये मामला साल-2001 की शुरुआत का है।

मैंने कभी अपनी खबरों पर मिले नोटिसों को गंभीरता से न तो लिया न ही कोई फिक्र की। यहाँ तक कि लोगों को बताया तक नहीं। जब तक जरूरी न हो उनका जवाब भी नहीं दिया। लब्बो-लुआब ये है कि नोटिस-वोटीस तो पत्रकार के लिए तमगे-अलंकरण हैं। इससे घबराने की क्या जरूरत। बस खबर में जान हो और तथ्य पुख्ता-प्रमाण हाथ में हो। फिर कोई कुछ न बिगाड़ सकता है न किसी के मदद की जरूरत होती है। अच्छी बात ये है कि आज Social Media ने हर शख्स को पत्रकार बना दिया है। बड़े अखबारों-News Channels के स्वनामधान्य पत्रकारों से ज्यादा यश अपना Portal-You Tube Channel चला रहे लोगों को मिल रहा। बड़े मीडिया घरानों के पत्रकारों की दशा ये है कि वे अपने मन से सरकार और किसी मंत्री-नौकरशाह के अच्छे काम की भी तारीफ नहीं कर सकते। सरकार-निजी संस्थान के खिलाफ लिखना तो भूल ही जाइए। विज्ञापन ही परम धर्मा जो है।

IAS बंशीधर तिवारी के खिलाफ भी टूल किट

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इसमें कोई शक नहीं कि मौजूदा CM पुष्कर ने उत्तराखंड की सियासत और यहाँ की पत्रकारिता को बेहद करीब से देखा है। अधिकांश वरिष्ठ पत्रकारों से उनके बहुत भी आत्मीय किस्म के रिश्ते हैं। उनके लिए वह बेहद सहानुभूति-संवेदनशीलता दिखाते रहे हैं। पत्रकारों पर विपत्ति आने पर वह साथ खड़े होते रहे हैं। मैं ये भी देख-पढ़ रहा हूँ कि सरकार ने विज्ञापनों पर बड़ा बजट खर्च कर दिया। हकीकत का दूसरा पहलू ये भी है कि हम पत्रकार और Media घराने ही लगातार हर सरकार से विज्ञापन अधिक से अधिक जारी करने की गुहार करते रहे हैं। पुष्कर सरकार में ये भी सच है कि विज्ञापन के लिए कोई उनके DG (Information) बंशीधर तिवारी या फिर पहुँच है तो सीधे मुख्यमंत्री से मिलता है तो उसको निराशा कभी नहीं मिली। जितने विज्ञापन आज छोटे-मँझोले पत्रकारों को भी मिल रहे, उसकी कभी कल्पना भी नहीं होती थी। मैं कई साप्ताहिक-पाक्षिक अखबार-पत्रिका निकालने वालों को जानता हूँ। उनका गुजर-बसर ही सरकारी विज्ञापनों से हो रहा। हम पत्रकार ही अपने पत्रकार साथियों के खिलाफ बोले-लिखे ये पत्रकार एकता के लिए भी उचित नहीं है। मुझे नहीं मालूम कि पत्रकारों की आड़ में कोई CM या सरकार के खिलाफ Toolkit चला रहा है या नहीं। इतना ही जानता हूँ कि पुष्कर के मुख्यमंत्री रहते सरकार की नेमतों के चलते तमाम पत्रकारों के दिन जरूर फिरे हैं। ये भी हैरानी वाला पहलू है कि बंशीधर सरीखे दमदार IAS अफसर के खिलाफ भी खतरनाक ढंग से टूल किट चल रहा और उनको इसके लिए पुलिस में मुकदमा दर्ज करना पड़ा।

 

 

 

 

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